'नाम' भर का 'वाम'..-लेख
' नाम' भर का 'वाम'... इस चुनाव में ये सिद्ध हो गया है कि भारत में 'वाम' अब 'नाम' भर का रह गया है। और ये भी है कि ये कोई एकदम से नहीं हो गया। इसका अपना लम्बा इतिहास रहा है। मेरी समझ में इसके तीन कारण हैं- 1. अनगिनत वाम-पार्टियाँ- लोकतांत्रिकता के नाम पर 'लीड' भूमिका में आने के लिए और अपनी 'एनालाइज्ड' विचारधारा को 'भारतीय' रूप में सबसे बेहतरीन साबित करने में लिए ये वामी लोग लगातार बंटते चले गए और एक-दूसरे को गरियाते रहे। जिसके कारण इनमें आपसी एकता और सहमति का अभाव रहा और मतभेद बढ़ते चले गए। 2. कथनी और करनी में अंतर- आज़ादी के बाद से लेकर आज तक का इतिहास है, इनकी कथनी और करनी में अंतर रहा है। आधुनिकता के नाम पर ये शुरू से अपने को 'एलीट' बनाये रहे। बुर्जुआ, मजदूर, किसान, सर्वहारा आदि सिर्फ इनकी जुबान तक रहे। फाइव स्टार होटल में बैठकर और अंग्रेजी में 'एनालिटिकल' लेख लिखकर ये लोग 'क्रांति' का मसौदा तैयार करते रहे और जनता से दूर होते चले गए। 3. वामी-आडम्बरी - दुनिया की सबसे आधुनिक विचारधारा को भारतीय वामियों ने